कल कुछ ऐसा हुआ जिसने ठीक एक साल पहले के अनुभव को संपूर्ण कर दिया...या यूँ कहो की एक साल पहले के अनुभव को और ज्यादा महत्वपूर्ण बना दिया...
एक साल पहले, मकर संक्रांति के ही दिन हमने अपनी पहली कार खरीदी...बहुत खुश थे हम...शो रूम पे ही कार की आरती हुई...हमने अपने नए फॅमिली मेम्बर के साथ फोटो खिंचायीं. और अपनी Nissan Micra को घर ले के आये...मेरे पति पंजाबी हैं...और गुरु नानक जी में उनका विश्वास है...इसे ऐसा कहना चाहिए की गुरूद्वारे जा के हम दोनों को सबसे ज्यादा शांति मिलती है...तो हमने सोचा की इस शुभ दिन गुरु का आशीर्वाद लेने के लिए गुरूद्वारे चलना चाहिए...तो हम तीनों बेलापुर के गुरूद्वारे चल दिए...वहाँ जा के मत्था टेका...काढ़ा प्रसाद लिया...कुछ चढ़ावा दिया जिसका की बिल हमें तुरंत दिया गया.
कुछ देर गुरूद्वारे की शांति में बैठकर हम दोनों जैसे ही बाहर निकले, एक मीठी सी सुगंध ने हम दोनों का ध्यान अपनी तरफ खींच लिया...जी हाँ...वो लंगर की खुशबू थी...हम दोनों ने एक दुसरे की तरफ देखा...और एक मुस्कराहट के साथ हम दोनों के मुंह से निकला..."लंगर छकें क्या??" और हम दोनों चल पड़े..लंगर छकने. ये मेरा पहला लंगर था. कम से कम सोच समझ वाली उम्र का तो ये पहला ही था. हम दोनों बैठ गए पंगत में अपनी बारी का इंतज़ार करते हुए. देखा तो वहाँ बुज़ुर्ग, आदमी, औरतें, बच्चे सभी काम कर रहे थे. गुरु के शब्दों में इसे सेवा कहते हैं. आदमी खाना परोस रहे थे, औरतें बर्तन धो रही थीं, बच्चे दौड़ दौड़ के थालियाँ लगा रहे थे. हमारी थाली में पहले एक ने दाल डाली. फिर एक दूसरा बंदा आया उसने पनीर की सब्जी डाली. एक ने आ के खीर डाली. जब रोटी ले के एक बंदा आने लगा तो विशाल ने हमसे पुछा की तुम्हें पता है रोटी कैसे लेते हैं? हमने कहा नहीं. तो उन्होंने दिखाया की जब वो रोटी (प्रसाद) देने आयें तो उसे दोनों हाथ फैलाकर लेते हैं. हमने कहा ठीक है. जब रोटी लेने की मेरी बारी आई और हमने अपने दोनों हाथ उस बन्दे के सामने फैलाए...उस एक पल में हमें क्या क्या और कितना कुछ महसूस हुआ ये लिख पाना मेरे लिए बहुत मुश्किल है. मेरे लिए वो पल एक एहसास था, की "बेटा, तुम चाहे कितनी भी गाड़ियां ले लो...कितने भी ऊंचे उड़ लो...लेकिन तुम्हें हाथ फैलाने ही पड़ेंगे" :-) "इसलिए हमेशा शुक्र करो उस सब का जो तुम्हें मिला है...और जो तुम्हारे सामने हाथ फैला रहा है उसे जी भर के दो." जैसा की मैंने कहा...बहुत मुश्किल है अपनी भावनाओं को लिख पाना...बहुत crude भाषा में कहें तो अपनी "औकात" समझ में आ गयी. उसके बाद हर निवाले में कुछ नमकीन स्वाद था..वो लंगर शायद हम कभी नहीं भूल पाएंगे.
इस साल की मकर संक्रांति पर हमने अखबार में पढ़ा की एक बड़े मंदिर में lunch है...हम दोनों ने हमेशा की तरह decide किया की चलते हैं खिचड़ी का lunch करने. रास्ते में सोचते हुए की खाना फ्री होगा या पैसे लगेंगे. पंगत में बैठ के करना होगा या buffet होगा...पहुँचने के बाद जो सबसे पहला गेट दिखा वो VIP and VVIP के लिए था. तो हम आगे बढ़ लिए कॉमन मैन के लिए गेट ढूँढने. गेट से घुसते ही काफी सारे पंडित भिक्षा मांगते दिखे. एक जो पहला दिखा उन्हें विशाल ने कुछ रूपये दे दिए. उसके आगे जब और लोग दिखे तो हम लोग बच के निकल लिए, ताकि फिर कोई भिक्षा न मांग बैठे. काफी सारे reception और general information के counters से गुज़रते हुए हम लोग shoe counter पर पहुंचे. वहाँ हमें एक झोला दिया गया जिसमें हमें अपने जूते चप्पल उतार के देने थे. ये सब करके हम पहले मंदिर में गए. भगवान् जी के दर्शन तो नहीं हो सके क्योंकि उनके आराम का समय था. हम लोग खाने के स्थान की तलाश में चल दिए. कई लोगों को एक तरफ जाते देखकर हम उनके पीछे चल दिए. ये सोच कर की खाना वहीं मिलेगा. जा के देखा तो कई tables सजी हुईं थीं. तरह तरह के पकवान, कचौरी, ठंडाई, गुलाब जामुन, काजू किशमिश पुलाव, दाल मक्खनी, कोफ्ते, इत्यादि इत्यादि. हम लोगों ने शुरुआत ठंडाई से की. उसके बाद प्लेट ले कर लाइन में लग गए. लोकल ट्रेन की टिकेट की लाइन और इस लाइन में थोडा ही फर्क होगा...अगर होगा तो...लोग बहुत smartly and conveniently लाइन में आगे जाने की कोशिश कर रहे थे...कुछ को तो हमने नासमझ समझ के माफ़ कर दिया...लेकिन कुछ को नहीं कर पाए :-)...खैर...हमने खाना शुरू किया..जो की बहुत स्वादिष्ट था. शायद सब कुछ देसी घी का बना था! खाना खाते खाते हमें एक ऐसे बात पता चली जिससे हमारे हाथ जहां थे वहीं रुक गए. हम गलती से VIP and VVIP वाले सेक्शन में आ गए थे. ये बात पता चलते ही हमें उस जगह की आलीशान सजावट और उम्दा खाने का रहस्य समझ में आ गया...वो खाना powerful gentry के लिए था...अब वो power चाहे सत्ता का हो या पैसे का. हम थोडा डरे और खाना ख़त्म करके जल्दी निकलने को कहा..तो पतिदेव बोले की भगवान् के लिए सब एक हैं...मेरे मन में आया की हाँ...भगवान् के लिए तो सब एक हैं...लेकिन इंसान के लिए नहीं. खाना खाके हम दोनों घर की तरफ चल दिए. उस elaborate khichdi lunch के बाद हमें पिछले साल का लंगर याद आ रहा था.
एक साल पहले, मकर संक्रांति के ही दिन हमने अपनी पहली कार खरीदी...बहुत खुश थे हम...शो रूम पे ही कार की आरती हुई...हमने अपने नए फॅमिली मेम्बर के साथ फोटो खिंचायीं. और अपनी Nissan Micra को घर ले के आये...मेरे पति पंजाबी हैं...और गुरु नानक जी में उनका विश्वास है...इसे ऐसा कहना चाहिए की गुरूद्वारे जा के हम दोनों को सबसे ज्यादा शांति मिलती है...तो हमने सोचा की इस शुभ दिन गुरु का आशीर्वाद लेने के लिए गुरूद्वारे चलना चाहिए...तो हम तीनों बेलापुर के गुरूद्वारे चल दिए...वहाँ जा के मत्था टेका...काढ़ा प्रसाद लिया...कुछ चढ़ावा दिया जिसका की बिल हमें तुरंत दिया गया.
कुछ देर गुरूद्वारे की शांति में बैठकर हम दोनों जैसे ही बाहर निकले, एक मीठी सी सुगंध ने हम दोनों का ध्यान अपनी तरफ खींच लिया...जी हाँ...वो लंगर की खुशबू थी...हम दोनों ने एक दुसरे की तरफ देखा...और एक मुस्कराहट के साथ हम दोनों के मुंह से निकला..."लंगर छकें क्या??" और हम दोनों चल पड़े..लंगर छकने. ये मेरा पहला लंगर था. कम से कम सोच समझ वाली उम्र का तो ये पहला ही था. हम दोनों बैठ गए पंगत में अपनी बारी का इंतज़ार करते हुए. देखा तो वहाँ बुज़ुर्ग, आदमी, औरतें, बच्चे सभी काम कर रहे थे. गुरु के शब्दों में इसे सेवा कहते हैं. आदमी खाना परोस रहे थे, औरतें बर्तन धो रही थीं, बच्चे दौड़ दौड़ के थालियाँ लगा रहे थे. हमारी थाली में पहले एक ने दाल डाली. फिर एक दूसरा बंदा आया उसने पनीर की सब्जी डाली. एक ने आ के खीर डाली. जब रोटी ले के एक बंदा आने लगा तो विशाल ने हमसे पुछा की तुम्हें पता है रोटी कैसे लेते हैं? हमने कहा नहीं. तो उन्होंने दिखाया की जब वो रोटी (प्रसाद) देने आयें तो उसे दोनों हाथ फैलाकर लेते हैं. हमने कहा ठीक है. जब रोटी लेने की मेरी बारी आई और हमने अपने दोनों हाथ उस बन्दे के सामने फैलाए...उस एक पल में हमें क्या क्या और कितना कुछ महसूस हुआ ये लिख पाना मेरे लिए बहुत मुश्किल है. मेरे लिए वो पल एक एहसास था, की "बेटा, तुम चाहे कितनी भी गाड़ियां ले लो...कितने भी ऊंचे उड़ लो...लेकिन तुम्हें हाथ फैलाने ही पड़ेंगे" :-) "इसलिए हमेशा शुक्र करो उस सब का जो तुम्हें मिला है...और जो तुम्हारे सामने हाथ फैला रहा है उसे जी भर के दो." जैसा की मैंने कहा...बहुत मुश्किल है अपनी भावनाओं को लिख पाना...बहुत crude भाषा में कहें तो अपनी "औकात" समझ में आ गयी. उसके बाद हर निवाले में कुछ नमकीन स्वाद था..वो लंगर शायद हम कभी नहीं भूल पाएंगे.
इस साल की मकर संक्रांति पर हमने अखबार में पढ़ा की एक बड़े मंदिर में lunch है...हम दोनों ने हमेशा की तरह decide किया की चलते हैं खिचड़ी का lunch करने. रास्ते में सोचते हुए की खाना फ्री होगा या पैसे लगेंगे. पंगत में बैठ के करना होगा या buffet होगा...पहुँचने के बाद जो सबसे पहला गेट दिखा वो VIP and VVIP के लिए था. तो हम आगे बढ़ लिए कॉमन मैन के लिए गेट ढूँढने. गेट से घुसते ही काफी सारे पंडित भिक्षा मांगते दिखे. एक जो पहला दिखा उन्हें विशाल ने कुछ रूपये दे दिए. उसके आगे जब और लोग दिखे तो हम लोग बच के निकल लिए, ताकि फिर कोई भिक्षा न मांग बैठे. काफी सारे reception और general information के counters से गुज़रते हुए हम लोग shoe counter पर पहुंचे. वहाँ हमें एक झोला दिया गया जिसमें हमें अपने जूते चप्पल उतार के देने थे. ये सब करके हम पहले मंदिर में गए. भगवान् जी के दर्शन तो नहीं हो सके क्योंकि उनके आराम का समय था. हम लोग खाने के स्थान की तलाश में चल दिए. कई लोगों को एक तरफ जाते देखकर हम उनके पीछे चल दिए. ये सोच कर की खाना वहीं मिलेगा. जा के देखा तो कई tables सजी हुईं थीं. तरह तरह के पकवान, कचौरी, ठंडाई, गुलाब जामुन, काजू किशमिश पुलाव, दाल मक्खनी, कोफ्ते, इत्यादि इत्यादि. हम लोगों ने शुरुआत ठंडाई से की. उसके बाद प्लेट ले कर लाइन में लग गए. लोकल ट्रेन की टिकेट की लाइन और इस लाइन में थोडा ही फर्क होगा...अगर होगा तो...लोग बहुत smartly and conveniently लाइन में आगे जाने की कोशिश कर रहे थे...कुछ को तो हमने नासमझ समझ के माफ़ कर दिया...लेकिन कुछ को नहीं कर पाए :-)...खैर...हमने खाना शुरू किया..जो की बहुत स्वादिष्ट था. शायद सब कुछ देसी घी का बना था! खाना खाते खाते हमें एक ऐसे बात पता चली जिससे हमारे हाथ जहां थे वहीं रुक गए. हम गलती से VIP and VVIP वाले सेक्शन में आ गए थे. ये बात पता चलते ही हमें उस जगह की आलीशान सजावट और उम्दा खाने का रहस्य समझ में आ गया...वो खाना powerful gentry के लिए था...अब वो power चाहे सत्ता का हो या पैसे का. हम थोडा डरे और खाना ख़त्म करके जल्दी निकलने को कहा..तो पतिदेव बोले की भगवान् के लिए सब एक हैं...मेरे मन में आया की हाँ...भगवान् के लिए तो सब एक हैं...लेकिन इंसान के लिए नहीं. खाना खाके हम दोनों घर की तरफ चल दिए. उस elaborate khichdi lunch के बाद हमें पिछले साल का लंगर याद आ रहा था.
Fantabulous....the vividness of your expression is truly remarkable.....keep it on...
ReplyDeletenice...Gurudwara always gives you what a temple can't. Peace. :) Reminded me of my time in Chandigarh and visit to Golden Temple.
ReplyDeleteNice memoir and wonderful way to put it. Loved yer descriptive writing
ReplyDeletenice writing!
ReplyDelete'उसके बाद हर निवाले में कुछ नमकीन स्वाद था' अत्यंत सौम्य और संपूर्ण भावाभिव्यक्ति है.ऐसे मौकों पर भावनाएं बह निकलती हैं.याद है मनाली का लंगर?
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