Sunday, March 13, 2011

potli

आज अपने माज़ी की पोटली में झाँका,
 बहुत दिनों से ख्यालों के किसी कोने में दबी पड़ी थी,
 धूल जम गयी थी,
कितनी भी झाड़ो, वापस पहले जैसा रंग नहीं आ पाता,
वक़्त के दाग आसानी से नहीं धुलते! 
 लेकिन कितना ही बेरंग सही, है तो मेरा!
खोल के देखा तो उसमें कुछ पुराने लम्हे रखे थे!
खनक थी उन चाभी के गुच्छों की, जो कभी दीवार के उस पार फेंके थे,
 दुआ थी उनकी जिनपर एक रूपये का वो सिक्का गिरा था,
 बाई की हंसी थी जिससे न जाने कितनी बार माँ की शिकायत करी थी,
पायल की आवाज़ थी जो मेरी माँ की जासूस थी,
कमबख्त, मेरे हर पल की खबर देती थी,
आज कोई पायल नहीं है,
लेकिन माँ को आज भी मेरे हर पल की खबर है!

 एकाएक पोटली से एक फुव्वारा निकला,
मेरी पहली पिचकारी का होगा,
काफी बड़ी थी वो, शायद उसका पानी अभी भी बचा हो,
कम से कम उसके रंग तो पक्के हैं अभी तक,
बहुत बेरंग हो गयी है होली अब,
उन रंगों की नरमी आ जाये,
तो होली में फिर से रंग भर जाएँ!