Sunday, November 28, 2010

Shatranj

ये दुनिया
शतरंज का बोर्ड,
और हम सब इसके मोहरे.
कुछ छोटे कुछ बड़े.

राजा है
जिनका क्षेत्र संकुचित है
चालें संतुलित.
अपना कहने को
केवल एक घर,
कहलाते फिर भी राजा ही हैं.

कुछ हाथी सरीखे हैं.
केवल
सीधी राह चलते हैं.

और कुछ ऊँट के सामान
टेढ़े टेढ़े ही.

घोड़ों जैसी फितरत है
कुछ की,
एक ही छालांग में
सब पा लेने को आतुर.

बोर्ड पर
ढेर सारे पैदल हैं.
ताकतवर किन्तु निरीह.
सीधे सीधे टकरा भी तो नहीं सकते.

कैसी त्रासदी है उनकी,
चल तो देते हैं,
पर
वापस लौट नहीं सकते.

Tulsi

चाह नहीं वन उपवन की,
एक मुट्ठी मिट्टी मांगी थी.
सागर से और नहीं कुछ भी,
कुछ बूँदें जल की मांगी थीं.
शीतल पवन के झोंके से,
कुछ प्राण वायु ही मांगी थी.
संसार को निर्मल करने में,
क्या ये इच्छा बेमानी थी?

संसार को पावन करती हूँ,
निज कण फैला कर सर्वत्र.
जीवन का अर्थ बताती हूँ,
जो श्रेष्ठतम है अर्पण कर.

अर्पित करते करते स्व को,
मैं रिक्त नहीं हो जाती हूँ.
हर एक नए बीज से मैं,
एक नए जन्म को पाती हूँ.

त्याग के गमले में आरोपित,
गृह रक्षा करना ही है धर्म.
हर विपदा में मैं एक सामान,
छाया देना ही मेरा धर्म.

सहन शक्ति की क्या हो सीमा,
धरती की हूँ मैं आत्मजा,
इससे जितना भी नि:सृत है,
उससे ही इसका रूप सजा.

वायु की प्रकृति को अपनाकर,
अपनी छाया को फैलाया.
भूमि को पकड़कर दृढ़ता से,
पर्वत की कला को अपनाया.

कोई पीड़ा नहीं, कोई अश्रु नहीं,
बलिदान ने अपूर्व संतोष दिया.
ईश्वर की अनुकम्पा मुझपर,
सत्कर्म शुद्धि का मुझे दिया.

मेरा हर एक कण एक नारी है,
दया त्याग जिसका आभूषण.
जो हर घर को अर्पित है किया,
सुन कर जग का ये करुण क्रंदन.

नारी की गरिमा को जानो,
उसके कृत्यों को पहचानो.
जो ममता की है देवी सी,
ये बात बताती मैं तुलसी.