Wednesday, March 9, 2016

For boy or girl?

Attended a birthday party today. It was a girl's b'day. I reached a gift shop to buy a gift. When I asked the shopkeeper to show something for a 3 year old kid, he asked 'girl or boy'. Now, after buying gifts for a number of kids, my standard answer to such questions is, 'it doesn't matter'. The shopkeeper grinned and understood that I am a 'different' customer. So, I bought a gift and headed towards the venue. The theme of the b'day party was Hello Kitty. All the girls got a paper bow and were asked to tuck it in their dresses. I was wondering why didn't the boys get that too. Very soon, I found out that the kitty was actually a girl, that is why the boys didn't get it. I had just begun to process all of this when there was a call for games. I dropped my thought process and got interested in the games. But, I was forced to pick up my thought process after I heard the rule of the games- 'Only girls can play those games' (obviously because it was a girl's b'day party and the kitty wasa girl). So, there were two games which the girls played. The boys in the party started playing with balloons, fighting with balloons, hitting each other with balloons. I could hear people commenting on those boys, "boys' games are totally different", "boys like to play these games only". Is it really true? No one included them in the games in the first place. There is a clear demarcation between what girls and boys should do or can do. We don't realize how our behaviour can leave an impression on their growing minds. "Girls wear pink and boys wear blue". It may sound very cool but that is how it actually starts. It sure is the beginning of gender discrimination according to me. It is a blessing for the businessmen. They sell their products on the basis of the premise that people will fall for it. And people actually fall for it. As a result, there is almost everything in the market for 'girls' and 'boys', be it toys, bags, cycles, bottles, tiffins etc etc. Worst was, when I saw story books for 'boys' and 'girls'. Do stories have to be gender specific? Worst part is, we do not realize its implications. In a way, we are telling our kids- Look! Girls (women) and Boys (men) are different in every way. Don't try to enter into each others zones. But how do we expect them to understand each other if we make such clear, rather strict boundaries.

I feel fundamentally something is wrong somewhere. Don't you?

Thursday, October 9, 2014

kuch yun

इससे पहले भी कई बार भीड़ में अकेला महसूस किया है खुद को
isse pehle bhi kai baar bheed me akela mehsoos kiya hai khud ko

पर आज तो यूँ हुआ की आइना देखा तो उसमें कोई न था!
 par aaj to yun hua ki aaina dekha to usmen koi na tha!!

Saturday, May 10, 2014

Mere naye zevar

कुछ नए ज़ेवर बनवाने का मन है!
कुछ चीज़ें इकठ्ठा हैं शायद काम आ जाएं. 
सोचती हूँ कि तुम्हारी खिलखिलाहट के झुमके कैसे लगेंगे. 
तुम जो प्यार से मां कहती हो, उसकी बालियां कैसी लगेंगी. 
तुम जो अपनी ही किसी जुबां में लम्बा सा कुछ बोल देती हो उसकी माला बनवाऊँ तो?
घर में तुम जो अपनी खुशबू बिखेरती हो उसके कंगन हों तो कैसा हो,
आँखें मटका के जो इशारे करतीं हो उसकी पायल पहनूँ तो?
नन्ही सी बाहें जब गले में डालती हो और झाँक के देखतीं हो, उसका मांग टीका कैसा रहेगा,
आँखें चमका के जब मुस्कुरातीं हो उसकी बिंदी कितनी  सुन्दर होगी. 
इन ज़ेवरों से तो कभी मन नहीं भरेगा,
अच्छा है इनके लिये लॉकर की ज़रुरत नहीं होती.

Saturday, March 8, 2014

mujhe mahila diwas ki shubhkaamnaayein mat do (Don't wish me women's day!)

मुझे महिला दिवस की शुभकामनायें  मत दो!

जिस दिन मैं पैदा हुई, उस दिन ये मत कहो की चलो कोई बात नहीं!
जब मैं खेलने जाऊं तो ये मत कहो कि ये तुम्हारे खेल नहीं!
जब मैं पढ़ने जाऊं तो ये मत कहो कि इतना पढ़ के क्या होगा!
जब मैं कुछ बनना चाहूं तो ये मत कहो कि ये तुम कैसे बन सकती हो!
 जब मैं कपडे पहनूं तो मुझे ये मत कहो कि तुम ये मत पहनो!
जब मैं अकेली जाऊं तो ये मत कहो कि पापा को ले जाओ!
जब मैं बस में जाऊं तो मुझे अलग कुर्सी मत दो!
जब कोई आदमी रोये तो मत कहो कि क्या औरतों कि तरह रोते हो!
जब मेरे साथ कुछ गलत हो तो ये मत कहो कि तुम चुप रहो!

मुझे एक ऐसी दुनिया दो जहाँ मुझे रोज़ ये याद न दिलाया जाए कि मैं एक महिला हूँ!
ये मेरा सपना है!
अब ये मत कहो कि तुम सपने मत देखो!










Tuesday, February 28, 2012

Life- Quantitative or Qualitative?

I am a psychologist and a researcher. Have done my PhD on cancer patients. My research was both quantitative and qualitative. So, my research often gets extended in my thoughts. This blog is an example of the same:
Written on 21st August '09

आज एक बार फिर ज़िन्दगी के बारे में सोचा. कुल मिला के देखो तो वो है क्या? जो समय हम अपनों के साथ हंस के बिताते हैं, वो? अगर बैठ कर ज़िन्दगी के बारे में सोचो, या एक मूवी चलाओ उसकी, तो क्या याद रहता है? मेरे हिसाब से, हमारी ख़ुशी के लम्हे, अपनों का प्यार, वो फीलिंग्स जब हम किसी के काम आये, मतलब सब कुछ qualitative. अपनी लाइफ भी अपनी research जैसी लगती है. कुछ हिस्सा quantitative और कुछ qualitative. कल सरीन सर ने सही कहा, "अहले चमन से मांग के लाये थे चार दिन, दो आरज़ू में कट गए, दो इंतज़ार में." ज़िन्दगी को जैसे चलाना चाहो, वो वैसे ही चलती है.

आज फिर ज़िन्दगी और passbook एक जैसे लग रहे हैं. पलट के देखो तो जितना क्रेडिट amount हो passbook में, वो अच्चा लगता है. ज़िन्दगी भी कुछ वैसी ही है. उसको जितना दो उतना अच्छा लगता है. लेकिन क्या दे सकते हैं हम उसे? ज़िन्दगी शायद! ज़िन्दगी को ज़िन्दगी इसीलिए कहते होंगे क्यूंकि उसे हम जिंदा करते हैं.

जैसे passbook में जितना क्रेडिट करो उतना ही निकाल भी सकते हैं. उसी तरह जितना हम ज़िन्दगी को देते होंगे, उतना ही वो भी हमें भी देती होगी. जितना उसे प्यार दो, उतना ही वो भी हमें देती होगी. जितना रेस्पेक्ट दो, उतना ही वो भी हमें देती होगी. passbook में तो सिर्फ अपने अकाउंट में क्रेडिट करने पर आपको कुछ मिलता है. लेकिन ज़िन्दगी तो ऐसी है, जिसमें अगर दूसरों की लाइफ में कुछ दो तो भी आपको बहुत कुछ मिलता है. शायद इसीलिए ज़िन्दगी qualitative ज्यादा है!

Monday, January 16, 2012

Khichdi se judi yaadein!

कल कुछ ऐसा हुआ जिसने ठीक एक साल पहले के अनुभव को संपूर्ण कर दिया...या यूँ कहो की एक साल पहले के अनुभव को और ज्यादा महत्वपूर्ण बना दिया...

एक साल पहले, मकर संक्रांति के ही दिन हमने अपनी पहली कार खरीदी...बहुत खुश थे हम...शो रूम पे ही कार की आरती हुई...हमने अपने नए फॅमिली मेम्बर के साथ फोटो खिंचायीं. और अपनी Nissan Micra को घर ले के आये...मेरे पति पंजाबी हैं...और गुरु नानक जी में उनका विश्वास है...इसे ऐसा कहना चाहिए की गुरूद्वारे जा के हम दोनों को सबसे ज्यादा शांति मिलती है...तो हमने सोचा की इस शुभ दिन गुरु का आशीर्वाद लेने के लिए गुरूद्वारे चलना चाहिए...तो हम तीनों बेलापुर के गुरूद्वारे चल दिए...वहाँ जा के मत्था टेका...काढ़ा प्रसाद लिया...कुछ चढ़ावा दिया जिसका की बिल हमें तुरंत दिया गया.

कुछ देर गुरूद्वारे की शांति में बैठकर हम दोनों जैसे ही बाहर निकले, एक मीठी सी सुगंध ने हम दोनों का ध्यान अपनी तरफ खींच लिया...जी हाँ...वो लंगर की खुशबू थी...हम दोनों ने एक दुसरे की तरफ देखा...और एक मुस्कराहट के साथ हम दोनों के मुंह से निकला..."लंगर छकें क्या??" और हम दोनों चल पड़े..लंगर छकने. ये मेरा पहला लंगर था. कम से कम सोच समझ वाली उम्र का तो ये पहला ही था. हम दोनों बैठ गए पंगत में अपनी बारी का इंतज़ार करते हुए. देखा तो वहाँ बुज़ुर्ग,  आदमी, औरतें, बच्चे सभी काम कर रहे थे. गुरु के शब्दों में इसे सेवा कहते हैं. आदमी खाना परोस रहे थे, औरतें बर्तन धो रही थीं, बच्चे दौड़ दौड़ के थालियाँ लगा रहे थे. हमारी थाली में पहले एक ने दाल डाली. फिर एक दूसरा बंदा आया उसने पनीर की सब्जी डाली. एक ने आ के खीर डाली. जब रोटी ले के एक बंदा आने लगा तो विशाल ने हमसे पुछा की तुम्हें पता है रोटी कैसे लेते हैं? हमने कहा नहीं. तो उन्होंने दिखाया की जब वो रोटी (प्रसाद) देने आयें तो उसे दोनों हाथ फैलाकर लेते हैं. हमने कहा ठीक है. जब रोटी लेने की मेरी बारी आई और हमने अपने दोनों हाथ उस बन्दे के सामने फैलाए...उस एक पल में हमें क्या क्या और कितना कुछ महसूस हुआ ये लिख पाना मेरे लिए बहुत मुश्किल है. मेरे लिए वो पल एक एहसास था, की "बेटा, तुम चाहे कितनी भी गाड़ियां ले लो...कितने भी ऊंचे उड़ लो...लेकिन तुम्हें हाथ फैलाने ही पड़ेंगे" :-) "इसलिए हमेशा शुक्र करो उस सब का जो तुम्हें मिला है...और जो तुम्हारे सामने हाथ फैला रहा है उसे जी भर के दो." जैसा की मैंने कहा...बहुत मुश्किल है अपनी भावनाओं को लिख पाना...बहुत crude भाषा में कहें तो अपनी "औकात" समझ में आ गयी. उसके बाद हर निवाले में कुछ नमकीन स्वाद था..वो लंगर शायद हम कभी नहीं भूल पाएंगे.

इस साल की मकर संक्रांति पर हमने अखबार में पढ़ा की एक बड़े मंदिर में lunch है...हम दोनों ने हमेशा की तरह decide किया की चलते हैं खिचड़ी का lunch करने. रास्ते में सोचते हुए की खाना फ्री होगा या पैसे लगेंगे. पंगत में बैठ के करना होगा या buffet होगा...पहुँचने के बाद जो सबसे पहला गेट दिखा वो VIP and VVIP के लिए था. तो हम आगे बढ़ लिए कॉमन मैन के लिए गेट ढूँढने. गेट से घुसते ही काफी सारे पंडित भिक्षा मांगते दिखे. एक जो पहला दिखा उन्हें विशाल ने कुछ रूपये दे दिए. उसके आगे जब और लोग दिखे तो हम लोग बच के निकल लिए, ताकि फिर कोई भिक्षा न मांग बैठे. काफी सारे reception और general information के counters से गुज़रते हुए हम लोग shoe counter पर पहुंचे. वहाँ हमें एक झोला दिया गया जिसमें हमें अपने जूते चप्पल उतार के देने थे. ये सब करके हम पहले मंदिर में गए. भगवान् जी के दर्शन तो नहीं हो सके क्योंकि उनके आराम का समय था. हम लोग खाने के स्थान की तलाश में चल दिए. कई लोगों को एक तरफ जाते देखकर हम उनके पीछे चल दिए. ये सोच कर की खाना वहीं मिलेगा. जा के देखा तो कई tables सजी हुईं थीं. तरह तरह के पकवान, कचौरी, ठंडाई, गुलाब जामुन, काजू किशमिश पुलाव, दाल मक्खनी,  कोफ्ते, इत्यादि इत्यादि. हम लोगों ने शुरुआत ठंडाई से की. उसके बाद प्लेट ले कर लाइन में लग गए. लोकल ट्रेन की टिकेट की लाइन और इस लाइन में थोडा ही फर्क होगा...अगर होगा तो...लोग बहुत smartly and conveniently लाइन में आगे जाने की कोशिश कर रहे थे...कुछ को तो हमने नासमझ समझ के माफ़ कर दिया...लेकिन कुछ को नहीं कर पाए :-)...खैर...हमने खाना शुरू किया..जो की बहुत स्वादिष्ट था. शायद सब कुछ देसी घी का बना था! खाना खाते खाते हमें एक ऐसे बात पता चली जिससे हमारे हाथ जहां थे वहीं रुक गए. हम गलती से VIP and VVIP वाले सेक्शन में आ गए थे. ये बात पता चलते ही हमें उस जगह की आलीशान सजावट और उम्दा खाने का रहस्य समझ में आ गया...वो खाना powerful gentry के लिए था...अब वो power चाहे सत्ता का हो या पैसे का. हम थोडा डरे और खाना ख़त्म करके जल्दी निकलने को कहा..तो पतिदेव बोले की भगवान् के लिए सब एक हैं...मेरे मन में आया की हाँ...भगवान् के लिए तो सब एक हैं...लेकिन इंसान के लिए नहीं. खाना खाके हम दोनों घर की तरफ चल दिए. उस elaborate khichdi lunch के बाद हमें पिछले साल का लंगर याद आ रहा था.

Sunday, October 2, 2011

chaand ka khaalipan

आज षष्ठी का चाँद आसमान में लटक रहा था,
कुछ यूँ, जैसे किसी छोटे बच्चे ने एक कटोरी हाथ में लटका रखी हो,
इस आस में कि शायद कहीं से कुछ आ गिरे उसमें,
कई बार तारों से उसे भरने कि कोशिश करी है,
लेकिन सब छलक जाते हैं,
कटोरी सीधी नहीं रह पाती है,
काश गरबा से पेट भी भर जाता.
कटोरी जितनी खाली होती जाती है,
अँधेरा उतना ही गहराता जाता है,
महीने में एक ही दिन भरी कटोरी मिल पाती है.

चलो इस बार कुछ यूँ करें कि सबकी कटोरियाँ भरें,
और पूरे महीने पूरनमासी देखें!

Wednesday, August 17, 2011

Too Good Too Bad!!!

Its raining again!!!..Oo ya...It is monsoon. And not just any monsoon...its Mumbai monsoon. Like any other season, or thing, or job or relationship...or just anything...mumbai monsoons also come with their pros and cons.

The analysis of the monsoon pros and cons popped in my mind every time I was either too excited about the rains...or totally cursing them...Every positive aspect of rain directed my mind towards the dark side of it...and every negative experience made me consider the silver lining behind it...I am going to share my views of the pros and cons of Mumbai Monsoons...of whatever I have experienced since the time I have known this mahanagri.
  • The good thing about Mumbai monsoon is that it rains a lot and the bad thing about Mumbai monsoon is that it rains a lot.
  • The good thing about Mumbai monsoon is that it clears the environment...everything seems to be so clean and fresh. The bad thing about Mumbai monsoon is that it floods the city...not just with rain water but with water coming out of various levels of earth. 
  • The good thing about Mumbai monsoon is the romanticism it brings in the air. I guess every relation would have fond memories of rains and its kindling effect. The bad thing about Mumbai monsoon is the anger it provokes...You get out of your homes...and your mood is spoiled because of the damaged roads...flooding potholes...stinking garbage. And very conveniently that mood is transferred on our spouses (that's the easiest target)/friends/parents/or totally unknown strangers ...so the romanticism of monsoon is flushed out in the rain. 
  • The good thing about Mumbai monsoon is the amazing greenery...in and outside mumbai. Trips to Lonavla, Malshej, Mahabaleshwar, Kolad, Goa [:)] during monsoons have made me experience sheer bliss. The bad thing about Mumbai Monsoon is the unpredictable accidents happening and costing lives...How in the world would you guess that a tree will fall on you when you are going for a movie...It is like being ready for a terror attack 24x7...however terror attacks come with only bad things...nothing good about that! 
  • The good thing about Mumbai monsoon is the variety of food to indulge in..I love roadside stuff (I prefer a little hygienic though)  ...bhutta (corn) by the sea is one of my favorites...panipuri, sandviches or just plain moongphali (singdana as it is called in maharashtra). At home, i guess everyone's favorite is pakodas or bhajiyas with steeming ginger tea..So the monsoon has a lot to stimulate everyone's taste buds. The bad thing about Mumbai monsoon is the starvation it brings because of the floods and unemployment. How do you feel when a kid or an old person or may be just any adult approach you for money or for food while you were indulging in a nice ice cream cone (not specific to monsoon though). If the person is young, you can refuse to give anything without any guilt. But, if that person is a kid or an old person, you feel terrible...at least I feel that...Giving them money or food is not the solution...Worse thing is we (I) do not have a solution. 
Finally I am in a dilemma...whether to feel good or bad about this whole 'monsoon' thing. But one thing is for sure...however i may feel right now, I would still be waiting for the monsoon next year...eagerly...desperately!

Sunday, March 13, 2011

potli

आज अपने माज़ी की पोटली में झाँका,
 बहुत दिनों से ख्यालों के किसी कोने में दबी पड़ी थी,
 धूल जम गयी थी,
कितनी भी झाड़ो, वापस पहले जैसा रंग नहीं आ पाता,
वक़्त के दाग आसानी से नहीं धुलते! 
 लेकिन कितना ही बेरंग सही, है तो मेरा!
खोल के देखा तो उसमें कुछ पुराने लम्हे रखे थे!
खनक थी उन चाभी के गुच्छों की, जो कभी दीवार के उस पार फेंके थे,
 दुआ थी उनकी जिनपर एक रूपये का वो सिक्का गिरा था,
 बाई की हंसी थी जिससे न जाने कितनी बार माँ की शिकायत करी थी,
पायल की आवाज़ थी जो मेरी माँ की जासूस थी,
कमबख्त, मेरे हर पल की खबर देती थी,
आज कोई पायल नहीं है,
लेकिन माँ को आज भी मेरे हर पल की खबर है!

 एकाएक पोटली से एक फुव्वारा निकला,
मेरी पहली पिचकारी का होगा,
काफी बड़ी थी वो, शायद उसका पानी अभी भी बचा हो,
कम से कम उसके रंग तो पक्के हैं अभी तक,
बहुत बेरंग हो गयी है होली अब,
उन रंगों की नरमी आ जाये,
तो होली में फिर से रंग भर जाएँ!


















Thursday, February 24, 2011

safar

एक सुबह यादों के सफ़र पे निकली, मैं,
कुछ पलों को फिर से जीने की कोशिश थी,
कुनकुनी सुबह को माँ का आँचल बना के लपेट लिया,
और रौशनी को पिता की ऊँगली की तरह पकड़ के चल पड़ी, मैं,
 सफ़र में कई ऐसे पल मिले,
जिन्हें मैंने जिंदा किया था कभी,
और कई ऐसे भी थे,
जिन्होंने बुझे हुए लम्हों में,
मुझमें जान भरी थी,
पाँव ठिठक गए,
जब यादों का वो गाँव आया,
जिसमें मेरे बचपन की खुशबू अभी भी बसी हुई थी,
नानी की कहानियों से महकती हुई रातें,
नाना के दुलार से चमकता आसमान,
पड़ोस से आती तंदूर की सौंधी तपन,
उन सारे पलों को फिर से जीने की ख्वाहिश है.
राह पे चलते हुए देखा,
की मुझसे पहले भी कोई इनसे हो के गुज़रा है,
आगे बढ़ते हुए यादों पे जो सूराख बन जाते हैं,
किसी ने उन यादों की रफू करने की कोशिश की है,
राह पे बहुत से फूल बिखरे थे,
सोचा उठा के ले चलूँ सब,
यादों के सफ़र से जितना मिल जाये उतनी ज़िन्दगी आराम से कटेगी,
पर न जाने क्या हुआ,
की थोड़े से उठा के लगा जैसे मेरी झोली भर गयी,
उस दिन पता चला,
की दुआओं में बड़ा वज़न होता है!! 
  
   
 
 













Wednesday, February 23, 2011

ek Inch!


एक इंच,
इसे छोटा न समझना!

ट्रेन में किसी से कभी,
एक इंच खिसकने को कहा है?
स्टेशन पे लगी बेंच पर,
एक इंच की जगह मांगी है?

चेहरे पे ऐसी मायूसी आ जाती है,
जैसे किसी ने कश्मीर पर कब्ज़ा कर लिया हो!
या फिर,
किसी ने ताज को चिंगारी दी हो!!

थकी हारी शाम को,
आँखें मूंदे घर जाते लोग!
जो करना है, उससे आँखें मूंदे!!
जो नहीं करना है, उससे आँखें मूंदे!!

अपने चारों तरफ एक इंच का दायरा बनाकर,
बाकी सबसे आँखें मूंदे!!
शायद सोचते हौंगे,
फिर ये एक इंच हो न हो!!

Sunday, November 28, 2010

Shatranj

ये दुनिया
शतरंज का बोर्ड,
और हम सब इसके मोहरे.
कुछ छोटे कुछ बड़े.

राजा है
जिनका क्षेत्र संकुचित है
चालें संतुलित.
अपना कहने को
केवल एक घर,
कहलाते फिर भी राजा ही हैं.

कुछ हाथी सरीखे हैं.
केवल
सीधी राह चलते हैं.

और कुछ ऊँट के सामान
टेढ़े टेढ़े ही.

घोड़ों जैसी फितरत है
कुछ की,
एक ही छालांग में
सब पा लेने को आतुर.

बोर्ड पर
ढेर सारे पैदल हैं.
ताकतवर किन्तु निरीह.
सीधे सीधे टकरा भी तो नहीं सकते.

कैसी त्रासदी है उनकी,
चल तो देते हैं,
पर
वापस लौट नहीं सकते.

Tulsi

चाह नहीं वन उपवन की,
एक मुट्ठी मिट्टी मांगी थी.
सागर से और नहीं कुछ भी,
कुछ बूँदें जल की मांगी थीं.
शीतल पवन के झोंके से,
कुछ प्राण वायु ही मांगी थी.
संसार को निर्मल करने में,
क्या ये इच्छा बेमानी थी?

संसार को पावन करती हूँ,
निज कण फैला कर सर्वत्र.
जीवन का अर्थ बताती हूँ,
जो श्रेष्ठतम है अर्पण कर.

अर्पित करते करते स्व को,
मैं रिक्त नहीं हो जाती हूँ.
हर एक नए बीज से मैं,
एक नए जन्म को पाती हूँ.

त्याग के गमले में आरोपित,
गृह रक्षा करना ही है धर्म.
हर विपदा में मैं एक सामान,
छाया देना ही मेरा धर्म.

सहन शक्ति की क्या हो सीमा,
धरती की हूँ मैं आत्मजा,
इससे जितना भी नि:सृत है,
उससे ही इसका रूप सजा.

वायु की प्रकृति को अपनाकर,
अपनी छाया को फैलाया.
भूमि को पकड़कर दृढ़ता से,
पर्वत की कला को अपनाया.

कोई पीड़ा नहीं, कोई अश्रु नहीं,
बलिदान ने अपूर्व संतोष दिया.
ईश्वर की अनुकम्पा मुझपर,
सत्कर्म शुद्धि का मुझे दिया.

मेरा हर एक कण एक नारी है,
दया त्याग जिसका आभूषण.
जो हर घर को अर्पित है किया,
सुन कर जग का ये करुण क्रंदन.

नारी की गरिमा को जानो,
उसके कृत्यों को पहचानो.
जो ममता की है देवी सी,
ये बात बताती मैं तुलसी.

Friday, November 12, 2010

Raat ka Ujaala!

Just wanted to scribble something on what I have come across very often in this city. Shadows standing in the dark. But...is the dark always dark?...Not for me...the dark reveals many truths that are hidden in the light.  

रात के उजाले में देखा है कई बार,
पर्दों को गिरते और शर्म को मरते हुए
दिन की धूप भी जिसे देख न सके,
रात ढूंढ लेती है उन अरमानों को मचलते हुए
अजनबी से जो लगते हैं साए दिन में,
महफ़िल बन जाते हैं शाम के ढलते हुए
रौशनी में जो सुनाई न दें,
रात गुज़रती है वो कहानी कहते हुए
रात अँधेरी है या दिन की ही जुड़वां,
उम्र गुज़र जाती है यही समझते हुए!

Thursday, November 11, 2010

Missing Life!!

Its about Life and Cancer. Its about cancer that is part of Life and its about Life that is part of Cancer. We normally realize the existence of cancer only when we cross a Cancer hospital, or we see a train compartment which says 'For Cancer Patients" and sometimes in newspaper articles, What to eat to avoid Cancer. But, the story is quite different when you are across the Cancer hospital boundary. Here Cancer seems to be larger than life. Life shrinks and identity becomes parallel to Cancer. So much so, that the people suffering from cancer often demarcate their lives pre and post cancer. Some take it as a harsh accident and some face it as a challenge. I have been associated with cancer patients for the past 6 years. I can still remember a few faces who taught me how to LIVE!! Who said meeting patients was depressing, especially cancer ones. As compared to what I gave those people, I always realize I have gained much more being associated with them, whether its awareness of ones body, taking your body seriously or enjoying small pleasures which life serves everyday. No doubt, life changes after being tagged as a 'Cancer Patient'. One has to deal with his/her own physical, emotional, psychological sufferings as well as their family members'. The social dimension adds more difficulty as far as peoples' views about cancer is concerned. Life becomes endless visits to hospitals, doctors, medical stores etc etc. We often talk about quality of life post cancer diagnosis and all. But its only a very small percentage of society who would be really thinking of 'Quality of Life'. Most of our society cannot even afford the basic treatment procedure required to get a normal life back...Life is absent...and so is the quality of it.

Kaajal ki Raat!

Kal raat kuch aisi lagi hui thi aanknon mein,

Kitni baar chaaha dho lena usko,

Kambakht, chipak gayi thi aanknon ke kinaaron par,

Aansuon se beh jaati agar kaajal hoti,

Sapnon ke jalne se raat hoti hai shayad!!!